वन्देमातरम जय हिन्द

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शनिवार, 9 जुलाई 2011

यह कदंब का पेड़






यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे धीरे
ले देती यदि मुझे तुम बांसुरी दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके चुपके आता
उस नीची डाली से अम्‍मां ऊंचे पर चढ़ जाता
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता
अम्‍मां-अम्‍मां कह बंसी के स्‍वरों में तुम्‍हें बुलाता


सुन मेरी बंसी मां, तुम कितना खुश हो जातीं
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं
तुमको आती देख, बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
एक बार मां कह, पत्‍तों में धीरे से छिप जाता
तुम हो चकित देखती, चारों ओर ना मुझको पातीं
व्‍या‍कुल सी हो तब, कदंब के नीचे तक आ जातीं
पत्‍तों का मरमर स्‍वर सुनकर,जब ऊपर आंख उठातीं
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं


ग़ुस्‍सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं नीचे आ जा
पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहतीं मुन्‍ना राजा
नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी
नये खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी
मैं हंसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता
बुलाने पर भी जब मैं ना उतरकर आता
मां, तब मां का हृदय तुम्‍हारा बहुत विकल हो जाता


तुम आंचल फैलाकर अम्‍मां, वहीं पेड़ के नीचे
ईश्‍वर से विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे
तुम्‍हें ध्‍यान में लगी देख मैं, धीरे धीरे आता
और तुम्‍हारे आंचल के नीचे छिप जाता
तुम घबराकर आंख खोलतीं, और मां खुश हो जातीं
इसी तरह खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे ।।

यह कविता सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित है और शायद हम सभी ने अपने स्कूल के दिनों में पढ़ी है. इस रचना को मैं लय के साथ पूरे मज़े से  गाती थी .  

14 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अनूठी रचना है...पुराने दिन याद हो आये...


नीरज

संजय भास्‍कर ने कहा…

इस कविता का तो जवाब नहीं !

कुमार राधारमण ने कहा…

हर पैरे के साथ मानो अपना बचपन जीवंत होता जाता है। कालजयी रचना।

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

कविता तो अच्छी है ही भाव भी अच्छे हैं.हमारे घर के पास एक-दो किलो मीटर के दायरे में बहुत से कदम्ब के वृक्ष हैं.

Sawai Singh Rajpurohit ने कहा…

यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे धीरे
ले देती यदि मुझे तुम बांसुरी दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके चुपके आता
उस नीची डाली से अम्‍मां ऊंचे पर चढ़ जाता
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता
अम्‍मां-अम्‍मां कह बंसी के स्‍वरों में तुम्‍हें बुलाता

अति सुंदर मनमोहक,सहज, सरल शब्दों के प्रयोग से सुंदर भावाभिव्यक्ति। बहुत अच्छी प्रस्तुति।

Rakesh Kumar ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना की प्रस्तुति की है आपने.
मैंने इसे पहले कहीं नहीं पढा.
पढकर निर्मल आनंद की अनुभूति हुई.

Rakesh Kumar ने कहा…

काश! आपकी आवाज में यह कविता सुनने को मिलती तो और भी आनंद आता.

Patali-The-Village ने कहा…

कविता पढकर निर्मल आनंद की अनुभूति हुई|

smshindi By Sonu ने कहा…

बहुत ही बढ़िया रचना

mridula pradhan ने कहा…

bahut-bahut dhanywad......is pyari kavita ko yaad dilakar.

virendra sharma ने कहा…

लगा सूरदास का कोई पद पढ़ रहा हूँ -मैया मोहे दाऊ बहुत खिजायो ,मौसे कहत मोल को लीन्हों ,तू जसुमत कब जायो .सुभद्रा कुमारी चौहान की बहुत मीठी मीठी लोरी सी बाल मनोविज्ञान को रूप आकार देती बंशी की टेर सी ये रचना देर तक गुंजन करती है पढने के बाद भी -यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता जमुना तीरे ,मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे -धीरे .आभार आपका इस की पढवाई के लिए .

Arunesh c dave ने कहा…

वाह भक्ति भाव से मन को भर दिया आपने वाकई बहुत ही सुंदर और सहज रूप से कविता लिखी है

Manoranjan Manu Shrivastav ने कहा…

इस कविता के एक एक लाइन को मैंने बचपन में सजीव किया है..मम्मी ठीक ऐसे ही मुझे मानती थी
फर्क इतना है की मेरे घर के सामने कदम्ब का नहीं आम का पेड़ है.

और इस कविता को पढ़ने के बाद ही मैंने ये सारे नाटक किये थे. पर मुझे तब नहीं पता था मम्मी ने मुझे इस कविता को पढ़ते हुए सुन रखा था.

रण बहादुर सिंह ने कहा…

रेखा जी आपने बचपन की याद दिला दिया