वन्देमातरम जय हिन्द

वन्देमातरम    जय हिन्द

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

दीपावली की शुभकामनाएँ




जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

यह गोपाल दास "नीरज" द्वारा रचित है और हम सबने ही पढ़ी है . आज के शुभ अवसर  पर इस कविता के भाव को भी समझना प्रासंगिक है . आप सभी को दीपावली की शुभकामनाये .

सोमवार, 12 सितंबर 2011

जय बोलो बईमान की




मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो डीफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !

काका की यह रचना आज के समय में एकदम सटीक बैठती है . आप भी पढ़िए और आनंद उठाइए .

शनिवार, 6 अगस्त 2011

मित्रता दिवस की शुभकामनाये




सीस पगा न झगा तन में प्रभुए जानै को आहि बसै केहि ग्रामा ।
धोति फटी.सी लटी दुपटी अरुए पाँय उपानह की नहिं सामा ।।
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एकए रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा ।
पूछत दीन दयाल को धामए बतावत आपनो नाम सुदामा ।।
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनिए
छाँड़े राज.काज ऐसे जी की गति जानै कोघ्
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँयए
भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै कोघ्
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरिए
बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने कोघ्
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधुए
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने कोघ् ।।
लोचन पूरि रहे जल सों, प्रभु दूरिते देखत ही दुख मेट्यो ।
सोच भयो सुरनायक  के कलपद्रुम के हित माँझ सखेट्यो ।
कम्प कुबेर हियो सरस्यो, परसे पग जात सुमेरू ससेट्यो ।
रंक ते राउ भयो तबहीं, जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो ।।
भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहिं त्रिभुवन राय ।


अन्तःपुर माँ लै गए, जहाँ न दूजो जाय ।।
मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय ।
पानी धर्यो परात में, पग धोवन को लाय ।।
राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन सनीति।
आठो पटरानी भई चितै चकित यह प्रीति ।।
नरोत्तमदास की यह रचना कृष्ण और सुदामा की प्रगाढ़  मित्रता का वर्णन करती है . हम सभी ने अपने स्कूल के दिनों में इसको पढ़ी है.  मित्रता दिवस में कृष्ण और सुदामा की निस्वार्थ मित्रता को याद करे और इसका अनुकरण करे तो हम भी श्रेष्ठ मित्र बन सकते है. 

सुग्रीव और राम की मित्रता भी एक अनुपम उदहारण है जिसमे विपत्ति के समय राम और सुग्रीव एक दूसरे की सहायता करते है जिससे वे आदर्श मित्र कहलाये . गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है.
"धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी आपति काल परखिये चारि"
एक बार फिर मित्रता दिवस की शुभकामनाये.

  (वैसे मित्रता दिवस मनाकर हम मैत्री के महत्त्व और उसकी व्यापकता को किसी खास दिन की परिधि में तो  नहीं बांध  सकते हैं सच्ची मित्रता तो आजीवन निभाई जाती है ) 

शनिवार, 30 जुलाई 2011

यशोधरा



"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।"
"जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"


वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ-हाँ यही कहानी।"




"गाते थे खग कल-कल स्वर से, सहसा एक हंस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खग शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"मांगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,

तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सभी ने जानी।"
"सुनी सभी ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?
कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लँ तेरी बानी"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।

कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।"

यह मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता है जिसमे यशोधरा अपने पुत्र राहुल को एक कहानी सुना रही है. आज कल तो शायद माताएं ऐसी कहानी नहीं सुनाती हैं . यह कविता ही एक बार और पढ़कर आनंद लीजिये.

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

गुरु को नमन



गुरु ब्रह्म गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरः 
                                                   गुरु साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः 





गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
                                                   बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताए।।







बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
                                           महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।


बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।१।।
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।२।।
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।।३।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।४।।



जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।



गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन।।
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन।।१।।
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना।।
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।।२।।
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।३।।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।।
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।।४।।
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी।।
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी।।५।।
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा।।
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा।।६।।
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।७।।



गुरु पूर्णिमा पर विशेष . गुरु से सम्बंधित इन सभी पंक्तीयों में से एक न एक हम सभी ने जरुर सुनी ही होगी.

शनिवार, 9 जुलाई 2011

यह कदंब का पेड़






यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे धीरे
ले देती यदि मुझे तुम बांसुरी दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके चुपके आता
उस नीची डाली से अम्‍मां ऊंचे पर चढ़ जाता
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता
अम्‍मां-अम्‍मां कह बंसी के स्‍वरों में तुम्‍हें बुलाता


सुन मेरी बंसी मां, तुम कितना खुश हो जातीं
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं
तुमको आती देख, बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
एक बार मां कह, पत्‍तों में धीरे से छिप जाता
तुम हो चकित देखती, चारों ओर ना मुझको पातीं
व्‍या‍कुल सी हो तब, कदंब के नीचे तक आ जातीं
पत्‍तों का मरमर स्‍वर सुनकर,जब ऊपर आंख उठातीं
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं


ग़ुस्‍सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं नीचे आ जा
पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहतीं मुन्‍ना राजा
नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी
नये खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी
मैं हंसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता
बुलाने पर भी जब मैं ना उतरकर आता
मां, तब मां का हृदय तुम्‍हारा बहुत विकल हो जाता


तुम आंचल फैलाकर अम्‍मां, वहीं पेड़ के नीचे
ईश्‍वर से विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे
तुम्‍हें ध्‍यान में लगी देख मैं, धीरे धीरे आता
और तुम्‍हारे आंचल के नीचे छिप जाता
तुम घबराकर आंख खोलतीं, और मां खुश हो जातीं
इसी तरह खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे ।।

यह कविता सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित है और शायद हम सभी ने अपने स्कूल के दिनों में पढ़ी है. इस रचना को मैं लय के साथ पूरे मज़े से  गाती थी .  

गुरुवार, 30 जून 2011

अकाल और उसके बाद : बाबा नागार्जुन के जन्म दिवस पर विशेष



अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।


दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद            
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।

                                                                 नागार्जुन              


*  बाबा नागार्जुन के जन्म दिवस पर विशेष 

गुरुवार, 23 जून 2011

जाग तुझको दूर जाना !



चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!

अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!


बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!


वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घँट मदिरा माँग लाया!
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!

कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!
प्रस्तुत कविता महादेवी वर्मा द्वारा रचित है . ये कविता मैंने अपने  स्कूल के दिनों में पढ़ी थी. 

शनिवार, 11 जून 2011

मेरी पहली पोस्ट :गाँव के स्कूल में कंप्यूटर

गाँव के एक कोने में स्थित है वह टपरा स्कूल -महात्मा गाँधी माध्यमिक स्कूल 
कच्ची ईमारत छत के नाम पर खपरेल . बरसात में सारी कक्षाओं में पानी टपकता है सो प्रायः रेनी डे की छुट्टी हो जाती है . सर्दी के दिनों में कक्षाए बाहर के मैदान में लगती है और गर्मी में तो वैसे भी स्कूल की छुट्टी रहा करती है. इस प्रकार स्कूल की ईमारत में पढाई कम ही होती है. पिछले वर्ष दो कमरे टूट के ढह गए पर पढाई मैदान में चलने के कारण किसी को कोई चोट नहीं आई . हेड मास्साब ने सभी को बताया था " यह होता है फायदा बाहर बैठ के पढने का, ताज़ी हवा तो मिलती ही है साथ ही दबकर मरने का डर भी नहीं रहता है. " 

स्कूल में हेड मास्टर है बाबु कमला प्रसाद जी चार और अध्यापक है जो कभी कभी ही स्कूल  आते है  . आज हम ऐसे स्कूल की कल्पना भी नहीं कर सकते परन्तु ऐसे हजारो स्कूल हमारे देश में है , आज भी रोज़ की तरह स्कूल में भारी चहल-पहल है . इतिहास पढ़ाने वाले पंडित राम गोपाल जी का यह सिध्दांत है कि किसी भी बहाने से बच्चे की पिटाई कर दो . मार खा खाकर बच्चे भी ढीठ हो गए हैं .
इधर हेड मास्साब के कमरे में -
भई ज़माना बहुत आगे बढ़ रहा है हमें इक्कीसवी सदी में जाना है इन बच्चों को कुछ नई- नई बातें बतलाइए कही ऐसा न हो की ये बदमाश इक्कीसवी सदी में पहुँच कर महात्मा गाँधी माध्यमिक स्कूल का नाम डुबो दे. गणित के अध्यापक चौबे जी बोले नहीं साहब ऐसा नहीं होने देंगे. गोपाल प्रसाद  साहब बोले जो बच्चा नहीं सीखे तो चमरी उतार दीजिये उसकी .
चौबे जी : मैं अभी जाकर इन बच्चों को कंप्यूटर के विषय में बताता हूँ . सबकी हड्डी पसली एक न कर डाली तो मैं भी असल चौबे की औलाद नहीं .
छड़ी उठाकर चौबेजी कक्षा में पहुँच गए. पहुँचते ही लाठी चार्ज सा करने लगे जो सामने पड़ता पीटा जाता . पीट पीटाकर सारे बच्चे शांत बैठ गए हैं और चौबे जी का मुह ताक रहे हैं.
चौबे जी कंप्यूटर के बारे में बताना शुरू करते हैं .आज मैं तुम्हे एक नई मशीन के बारे में बताऊंगा इसे कहते है कंप्यूटर. क्या कहते है बताओ चौबे जी ने पूछा ? कुछ ने बोला कुछ ने नहीं बोला .अबे जोर से बोलो, कहो कम्पूटर . सभी बच्चों ने कहा कम्पूटर . मास्साब बोले शाबास .

नई मशीन हैं ख़राब मत करना नहीं तो हड्डी तोड़ दूंगा .
 कहाँ है मशीन मास्साब 
यहाँ नहीं है और न आएगी परन्तु आई तो ख़राब न कर देना. यह  बिगड़ जाती है तो बनती भी नहीं . अपने गाँव में साईकिल की तो मरम्मत  तक तो होती नहीं है . 
तो क्या है कम्पूटर मास्साब .
बताया न एक मशीन होती है जैसे सिलाई मशीन जिससे  जो पूछो बता देती है . जैसे दो  दुनी चार .जमूरा होता है न जादूगर का वैसा .
गुरूजी मान लो हमारी अठन्नी खो गई .पूछे तो क्या बता देगा किसने चुराई है . 
अपनी अठन्नी सम्भाल के क्यों नहीं रखता बे खुद गुमायेगा और पूछने इधर आएगा इतना बताने में तो साठ पैसे की बिजली खर्च कर देगा कंप्यूटर और ये सब नहीं बताता-फिरता है, कम्पूटर वो तो गणित की समस्या हल करता है .
ये सब कम्पूटर कैसे जान लेता है मास्साब  .
क्या पता , बनाने वाले ने मशीन बना दी , पेंच वेंच लेगे है ढेर सारे , बटन चिपके है , तार निकल के यहाँ वहां गए है ,बिजली से चलती है झटका भी लग सकता है बचना .
अपने गाँव में तो बिजली नहीं ही गुरूजी .
तो यहाँ कौन सा कम्पूटर मंगाए दे रहा है कोई 
बेटरी से नहीं चलती है क्या , या फिर डीजल या मिटटी के तेल से .
तेल वेल मत डाल देना मूर्खो मशीन जाम हो जाएगी 
जी मास्साब 
कोई भी परीक्षा में या इधर उधर पूछे की क्या होता है कम्पूटर तो फटाक से बता देना . क्या समझे ?
समझ गए सबने मिलकर कहा
शाबास अच्छा तो अब बताओ रामू क्या होता है कम्पूटर ?
रामू अपने पड़ोस में बैठे  बच्चे के साथ  व्यस्त था सो हकलाने लगा जी जी कम्पूटर कम्पूटर..
चौबे जी ने छड़ी उठाई और रामू को धुनना शुरू कर दिया फिर चिल्लाये कम्पूटर एक मशीन होती है उल्लू की दूम ......................वे पिटते हुए पाठ दुहरा रहे थे और रामू उछल-उछल कर मार खा रहा था .
गाँव के स्कूल में पढाई चालू थी .

* यह  रचना श्री ज्ञान चतुर्वेदी द्वारा  "दंगे में मुर्गा " पुस्तक (किताब घर प्रकाशन )में मैंने पढ़ी है . आप भी यह पुस्तक जरूर  पढ़िए .